देश में विभिन्न धर्मों और संप्रदायों के लोग रहते हैं। उनके पारिवारिक मामलों जैसे विवाह, तलाक, उत्तराधिकार आदि के लिए अलग-अलग तरह के वैयक्तिक कानून हैं।
1.विवाह
अलग-अलग धर्मों के लोगों के लिए विवाह और/अथवा तलाक विषयक कानून भिन्न-भिन्न अधिनियमों में उल्लिखित हैं। ये हैं-
- धर्मांतरण विवाह विच्छेद अधिनियम, 1866
- भारतीय तलाक अधिनियम, 1869
- भारतीय ईसाई विवाह कानून, 1872
- काजी अधिनियम, 1880
- आनंद विवाह अधिनियम, 1909
- भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925
- बाल विवाह निरोधक अधिनियम, 1929
- पारसी विवाह एवं तलाक अधिनियम, 1936
- मुस्लिम विवाह भंग अधिनियम, 1939
- हिंदू विवाह अधिनियम, 1955
- विशेष विवाह अधिनियम, 1954
- विदेशी विवाह अधिनियम, 1969 और मुस्लिम महिला (तलाक अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 1986विशेष विवाह अधिनियम, 1954 जम्मू-कश्मीर को छोड़कर शेष भारत में लागू है, लेकिन यह देश के उन नागरिकों पर लागू होता है जो जम्मू-कश्मीर में रह रहे हैं। जिन व्यक्तियों पर यह अधिनियम लागू होता है, वे इस अधिनियम के तहत विनिर्दिष्ट तौर पर विवाह का पंजीकरण करवा सकते हैं, भले ही वे अलग-अलग धर्मों के मानने वाले क्यों न हों। इस अधिनियम की अपेक्षाओं के अनुरूप है तो ऐसे विवाह को विशेष विवाह अधिनियम के अंतर्गत पंजीकृत किया जा सकता है। हाल ही में अधिनियम की धारा 4 (बी) (तीन) में संशोधन कर ‘अथवा मिरगी’ शब्द हटा दिया गया है। इस कानून की धारा 36 और धारा 38 में भी संशोधन कर यह व्यवस्था की गई है कि नाबालिग बच्चे के पालन-पोषण और शिक्षा के मुकदमे को नोटिस मिलने की तिथि से 60 दिनों के अंदर निपटा लिया जाएगा।हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 में हिंदुओं के विवाह से संबंधित पारंपरिक कानूनों को संहिताबद्ध करने का प्रयास किया गया है। यह अधिनियम जम्मू एवं कश्मीर को छोड़कर संपूर्ण भारत में लागू है।यह अधिनियम उन हिंदुओं पर लागू होता है जो ऐसे राज्यों में रहते हों जहां यह अधिनियम लागू नहीं है। इसके अतिरिक्त यह सभी प्रकार के हिंदुओं और बौद्ध, सिख, जैन पर भी लागू होता है। इनमें वे सभी शामिल हैं जो अपने आपको मुसलिम, ईसाई, पारसी या यहूदी नहीं मानते, किंतु यह अधिनियम तब तक किसी भी अनुसूचित जनजाति पर लागू नहीं होता, जब तक सरकार अपने गजट में उन्हें अधिसूचित न करे या अन्य निर्देश न दे।तलाक संबंधी व्यवस्थाएं हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13 में और विशेष विवाह अधिनियम की धारा 27 में दी गई है। इन अधिनियमों के अधीन पति या पत्नी द्वारा जिन सामान्य आधारों पर विवाह के विच्छेद की मांग की जा रही है, वे इन प्रमुख शीर्षो के अंतर्गत हैं- व्याभिचार, क्रूरता, विकृत मन, रति रोग, कुष्ठ रोग, परस्पर सहमति और जीवित रहने के बारे में सात वर्षों तक नहीं सुना सकता।जहां तक ईसाई धर्म का संबंध है, उनके विवाह और तलाक संबंधी व्यवस्थाएं क्रमश: भारतीय ईसाई विवाह अधिनियम, 1872 और भारतीय विवाह विच्छेद अधिनियम, 1869 की धारा 10 में हैं। इस धारा के अनुसार, कोई पति इस आधार पर तलाक की मांग कर सकता है कि उसकी पत्नी व्यभिचारिणी है, जबकि पत्नी इस आधार पर तलाक की मांग कर सकती है कि उसके पति ने धर्म परिवर्तन कर लिया है या उसने दूसरी स्त्री से शादी कर ली है या वह
- पारिवारिक व्यभिचार,
- व्यभिचार सहित द्विविवाह,
- किसी अन्य व्यभिचारी स्त्री से विवाह,
- बलात्कार, गुदा मैथुन या पशुगमन,
- ऐसी क्रूरता से युक्त व्यभिचार, जो व्यभिचार के बिना भी पत्नी को तलाक मांगने की अधिकारिणी बना देता है- ए मेंसा एटोरो (यह रोमन कैथोलिक चर्च द्वारा बनाई गई विवाह- विच्छेद की एक एसी पद्धति है जो व्यभिचार, दोषपूर्ण आचरण, क्रूरता, पाखंड, धर्मविमुखता आदि के आधार पर न्यायिक पृथक्करण के समकक्ष है), और
- दो वर्ष या इससे अधिक समय से युक्तिसंगत कारण के बिना परित्याग सहित व्यभिचार का दोषी है।
तलाक के मामले में महिलाओं के प्रति पक्षपातपूर्ण प्रावधानों को हटाने के लिए भारतीय तलाक (संशोधन) अधिनियम, 2001 के जरिए भारतीय तलाक अधिनियम, 1896 में व्यापक संशोधन किए गए। इसके अतिरिक्त इस अधिनियम की धारा 36 और 41 में विवाह कानून (संशोधन) अधिनियम, 2001 के जरिए संशोधन किया गया, ताकि गुजारा खर्चा अथवा नाबालिग बच्चों के भरण-पोषण और शिक्षा व्यय के वहन के लिए दी जाने वाली याचिका का निपटारा प्रतिवादी को नोटिस दिए जाने के 60 दिनों के भीतर किया जा सके।
जहां तक मुसलमानों का प्रश्न है, देश में विवाह से संबंधित प्रचलित मुस्ल्मि कानून उन पर लागू होता है। जहां तक उनकें तलाक का संबंध है, मुस्ल्मि पत्नी को तलाक के बहुत सीमित अधिकार प्राप्त हैं। अलिखित और पारंपरिक कानूनों में निम्नलिखित रूपों में तलाक के बहुत सीमित अधिकार प्राप्त हैं। अलिखित और पांरपरिक कानूनों में निम्नलिखित रूपों में तलाक की मांग करने की इजाजत देकर उसकी स्थिति को बेहतर बनाने का प्रयास किया जाता है-
- तलाके- तौफिद: यह तलाक का एक रूप है जिसके अनुसार पति अपने तलाक का अधिकार अपनी शादी के इकरारनामे में पत्नी को सौंप देता है। इस स्थिति में अन्य बातों के अतिरिक्त यह शर्त भी हो सकती है कि पति दूसरी शादी कर लेने पर उसकी पहली पत्नी को तलाक ले लेने का अधिकार होगा।
- खुला: इसके अनूसार पति-पत्नी आपस में विवाह के लिए किए गए समझौते को समाप्त कर तलाक ले लेते हैं। इस पद्धति में पत्नी तलाक लेने के लिए आम तौर पर पति से अपना मेहर नहीं मांगती है। तलाक लेने की शर्ते आपस में पत्नी तलाक लेने के लिए आम तौर पर पति से अपना मेहर नहीं मांगती है। तलाक लेने की शर्ते आपस में तय की जाती है।
- मुबारत: यह आपसी रजामंदी का तलाक होता है।
साथ ही, मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम, 1939 द्वारा मुस्लिम पत्नी को निम्नलिखित आधारों पर तलाक पाने का अधिकार दिया गया है-
- चार वर्षों से पति के संबंध में कोई जानकारी न हो,
- पति दो वर्ष से उसका भरण-पोषण नहीं कर रहा हो,
- पति सात वर्ष या उससे अधिक का कारावास दे दिया गया हो,
- किसी समुचित कारण के बिना पति तीन वर्ष से अपने वैवाहिक दायित्वों का निर्वाह नहीं कर रहा हो,
- पति नपुंसक हो,
- पति दो वर्ष से पागल हो,
- पति कुष्ठ रोग या उग्र रति रोग से पीडि़त हो,
- उस(पत्नी) की शादी 15 वर्ष की आयु पूरी होने से पहले हो चुकी हो और उसने पति के साथ सहवास न किया हो, और
- पति का व्यवहार क्रूर रहा हो।
पारसी विवाह और तलाक अधिनियम, 1936 पारसियों के वैवाहिक संबंधों के बारे में है। इस अधिनियम में ‘पारसी’ शब्द को ‘जरथ्रुष्टपंथी पारसी’ के रूप में पारिभाषित किया गया है। जरथ्रुष्टपंथी वह होता है जो जरथ्रुष्ट धर्म को मानता है। यह नस्ल द्योतक है। इस अधिनियम के अंतर्गत प्रत्येक विवाह और तलाक को निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार पंजीकृत कराना आवश्यक है लेकिन इस प्रक्रिया का पालन न करने से विवाह गैर
कानूनी नहीं होता। अधिनियम में केवल एकल विवाह की व्यवस्था है। पारसी विवाह और तलाक (संशोधन) अधिनियम, 1988 के तहत पारसी विवाह और तलाक अधिनियम, 1936 के कुछ प्रावधानों का विस्तार कर उन्हें हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के अनुरूप बना दिया गया है। इस अधिनियम की धारा 39 और धारा 49 में विवाह कानून (संशोधन) अधिनियम, 2001 द्वारा संशोधन कर यह व्यवस्था की गई है कि मुकदमे के दौरान निर्वाह और नाबालिग बच्चों की शिक्षा के लिए आर्थिक सहायता संबंधी याचिका पर प्रतिवाद, पति अथवा पत्नी, को नोटिस मिलने की तिथि से 60 दिनों के अंदर फैसला घोषित कर दिया जाएगा।
यहूदियों के वैवाहिक कानूनों के बारे में देश में कोई संहिताबद्ध विधि नहीं है। आज भी वे अपने धार्मिक नियमों का पालन करते हैं। वे लोग विवाह को सिविल संविदा न मानकर, दो व्यक्तियों के बीच स्थापित ऐसा संबंध मानते हैं जिनमें अत्यंत पवित्र कर्तव्यों का पालन करना होता है। इसमें भी पर पुरूषगमन या पर स्त्री गमन अथवा क्रूर व्यवहार किए जाने पर न्यायालय के माध्यम से तलाक दिया या लिया जा सकता है। उनमें भी एक विवाह का ही प्रचलन है।
2.बाल विवाह
वर्ष 1929 में बाल विवाह निरोधक अधिनियम में 1978 में संशोधन कर, विवाह के लिए पुरूष की न्यूनतम आयु 21 वर्ष और स्त्री की आयु 18 वर्ष निर्धारित की गई है। यह संशोधन, एक अक्टूबर, 1978 से लागू है।
3.दत्तक ग्रहण
यद्यपि गोद लेने का कोई सामान्य कानून नहीं है, फिर भी हिंदुओं में हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 द्वारा तथा कुछ समुदायों में उनकी प्रथा के अनुसार इसकी स्वीकृत दी गई है। मुसलमानों, ईसाई और पारसियों में दत्तक विधि नहीं है। उन्हें इसके लिए संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 के तहत अदालत में जाना पड़ता है। ये तीनों धर्मावलंबी उक्त अधिनियम के अधीन पालन-पोषण के लिए ही किसी बच्चे को गोद ले सकते हैं। ऐसे बच्चे वयस्क हो जाने पर अपने प्रतिपालक से सभी संबंध तोड़ लेने का अधिकार है। ऐसे बच्चे को विरासत का कानूनी अधिकार नहीं दिया गया है। जो विदेशी नागरिक भारतीय बच्चों को गोद लेना चाहते हैं, उन्हें उपर्युक्त अधिनियम के अधीन न्यायालय में आवेदन करना पड़ता है।
दत्तक ग्रहण संबंधी हिंदू कानून को हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 द्वारा संशोधित और संहिताबद्ध किया गया है जिसके अंतर्गत कानूनी तौर पर सक्षम हिंदू पुरूष या स्त्री किसी बालक या बालिका को गोद ले सकता है। पारिवारिक कानून के अन्य पहलुओं की भांति किसी अवयस्क बालक के संरक्षण के संबंध में कोई समान कानून नहीं है। इसके लिए तीन विभिन्न कानूनी पद्धतियां (हिंदू विधि, मुस्लिम विधि और संरक्षक तथा प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890) प्रचलित हैं। संरक्षक तीन प्रकार के हो सकते हैं- नैसर्गिक संरक्षक, वसीयती संरक्षक और न्यायालय द्वारा नियुक्त संरक्षक। संरक्षण से जुडे़ नहसंपत्ति। प्राय: दोनों एक ही व्यक्ति को नही सौंपी जातीं।
अल्पवयस्कता और संरक्षकता से संबद्ध हिंदू कानूनों को हिंदू अल्पवयस्क और संरक्षण अधिनियम,1956 द्वारा संहिताबद्ध किया गया है। असंहिताबद्ध कानून की स्थिति में इसमें भी पिता के श्रेष्ठ अधिकार को कायम रखा गया है। इसमें कहा गया है कि बालक 18 वर्ष की आयु तक अवयस्क रहता है। पुत्रों और अविवाहित पुत्रियों, दोनो का नैसर्गिक संरक्षक पहले पिता है और इसके बाद माता। पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों की संरक्षकता के मामले में ही मां का अधिकार प्रथम माना गया है। अवैध बच्चों के मामले में मां को कथित पिता से बेहतर अधिकार प्राप्त हैं। इस अधिनियम के अनुसार, बच्चे के शरीर और उसकी संपत्ति में कोई अंतर नहीं रखा गया है। अत: संरक्षकता का अभिप्राय इन दोनों पर नियंत्रण है।
मुस्लिम कानून में पिता को प्रधानता दी गई है। इसके अंतर्गत संरक्षक और अभिरक्षक में भी अंतर किया गया है। संरक्षक का संबंध प्राय: संपत्ति ‘संपत्ति के संरक्षक’ से होता है। सुन्नियों के अनुसार, यह अधिकार पहले पिता का है, उसकी अनुपस्थिति में उसके निष्पादक का है। यदि पिता ने कोई निष्पादक नियुक्त नहीं किया है तो संरक्षक का अधिकार दादा को मिलता है, निष्पादक को नहीं। फिर भी दोनों विचारधाराओं के विद्वान इस बात से सहमत नहीं माना जाता।
जहां तक नैसर्गिक संरक्षक के अधिकारों का संबंध है, इसमें कोई संदेह नहीं है कि पिता का अधिकार संपत्ति और शरीर दोनों पर होता है। अगर अवयस्क बालक मां की अभिरक्षा में है तो भी देखभाल और नियंत्रण का सामान्य अधिकार पिता को प्राप्त रहता है किंतु पिता की मृत्यु के बाद मां को संरक्षक नियुक्त किया जा सकता है। इस प्रकार भले ही मां को नैसर्गिक संरक्षक के रूप में मान्यता प्राप्त न हो, फिर भी पिता की वसीयत के अंतर्गत उसे संरक्षक नियुक्त किए जाने को लेकर कोई आपत्ति नहीं है।
मुस्लिम कानून के अनुसार, अवयस्क बालक की अभिरक्षा (हिजानत) का पूरा अधिकार मां को है। पिता भी इस अधिकार से उसे वंचित नहीं कर सकता। अनाचार के आधार पर मां को इस अधिकार से वंचित किया जा सकता है। किस आयु में मां का अभिरक्षण समाप्त हो जाता है, इस बारे में शिया संप्रदाय का मत है कि हिजानत पर मां का अधिकार केवल स्तनपान कराने की अवधि तक होता है। अत: बच्चे की दो वर्ष की आयु होने पर उसका यह अधिकार तब तक रहता है, जब तक लड़की सात वर्ष की न हो जाए जबकि हनफी विचार के अनुसार, उसे यह अधिकार लड़की की किशोरावस्था आरंभ होने तक प्राप्त रहता है।
संरक्षकों और प्रतिपालकों के बारे में सामान्य कानून संरक्षक और प्रतिपालक अधिनियम, 1890 में उल्लिखित हैं। इसमें स्पष्ट कर दिया गया है कि पिता का अधिकार प्रधान है और संरक्षक या प्रतिपालक के रूप में अन्य कोई व्यक्ति तब तक नियुक्त नहीं किया जा सकता, जब तक पिता अयोग्य न पाया जाए। अधिनियम में यह भी प्रावधान है कि न्यायालय को इस अधिनियम के अनुसार, संरक्षक नियुक्त करते समय बच्चे की भलाई को ध्यान में रखना चाहिए।
4.भरण-पोषण
अपनी पत्नी के भरण-पोषण की पति की जिम्मेदारी विवाह से संपन्न होती है। भरण-पोषण का अधिकार वैयक्तिक कानून के तहत आता है।
अपराध दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का दो) के अनुसार, गुजारा (निर्वहन) का अधिकार पत्नी और आश्रित संतानों को ही नहीं, अपितु निर्धन माता-पिता और तलाकशुदा पत्नियों को भी दिया गया है। परंतु पत्नी आदि का दावा पति के पास उपलब्ध साधन पर निर्भर करता है। सभी आश्रित व्यक्तियों के भरण-पोषण का दावा 500 रूपए प्रतिमाह तक सीमित रखा गया है, किंतु अपराध दंड प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम, 2001 (2001 का 50वां) के अनुसार, यह सीमा हटा दी गई है। इस संहिता के अंतर्गत भरण-पोषण के अधिकार को शामिल करने से बड़ा लाभ यह हुआ है कि भरण-पोषण की राशि जल्दी और कम खर्च में मिलने लगी है। वे तलाकशुदा पत्नियां, जिन्हें परंपरागत वैयक्तिक कानून के अंतंर्गत गुजारा राशि मिलती है, दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत भरण पोषण की राशि पाने की अधिकारिणी नहीं हैं।
हिंदू कानून के अनुसार, पत्नी को अपने पति से भरण पोषण प्राप्त करने का पूर्ण अधिकार है लेकिन अगर वह पतिव्रता नहीं रहती हैं, तो वह अपने इस अधिकार से वंचित हो जाती हैं। भरण पोषण का उसका अधिकार हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण पोषण अधिनियम, 1956 में संहिताबद्ध है। भरण पोषण की रकम निर्धारित करते समय न्यायालय अनेक बातों को ध्यान में रखता है, जैसे पिता की आर्थिक स्थिति और देनदारियां। न्यायालय इस बात का भी निर्णय करता है कि पत्नी का पति से पृथक रहना न्यायसंगत है या नहीं। न्यायसंगत मानने योग्य कारण इस अधिनियम में उल्लिखित हैं। मुकदमा चलाने की अवधि के दौरान भरण पोषण, निर्वाह व्यय और विवाह संबंधी मुकदमें के खर्च का भी वहन या तो पति द्वारा किया जाएगा या पत्नी द्वारा, बशर्ते दूसरे पक्ष, पति या पत्नी की कोई स्वतंत्र आय नहीं हो। स्थायी भरण पोषण के भुगतान के बारे में भी यही सिद्धांत लागू होगा।
तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के हितों के संरक्षण तथा तलाक संबंधी बातों के लिए मुसलिम महिला (तलाक संबंधी अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 में व्यवस्था की गई है। इस अधिनियम के तहत मुस्लिम महिलाओं को दूसरी बातों के अलावा ये अधिकार भी प्राप्त हैं-
- ‘इद्दत’ की अवधि के दौरान पूर्वपति के उचित और न्यायसंगत निर्वाह भत्ता पाने का अधिकार,
- यदि तलाक के पहले या बाद जन्म लिए बच्चों का भरण पोषण तलाकशुदा महिला खुद करती है तो उसके पूर्व पति द्वारा उसे उचित और न्यायसंगत निर्वाह भत्ता बच्चे की जन्म की तिथि से दो साल तक मिलेगा,
- ‘मेहर’ की राशि या स्त्री धन, जो भी मुस्लिम कानून के अनुसार, विवाह के अवसर पर या बाद में, पत्नी को देने का निश्चय हुआ हो, उतनी राशि तलाकशुदा महिला को मिलेगी, और
- तलाकशुदा महिला उस पूरी संपत्ति की अधिकारिणी होगी जो विवाह पूर्व, विवाह के समय या विवाह के बाद उसे उसे सगे-संबंधियों, मित्रों या पति के रिश्तेदारों ने दी होगी।
इद्दत के बाद अपना भरण पोषण न कर सकने वाली तलाकशुदा मुस्लिम महिला के लिए भी इस कानून में प्रावधान हैं। इसके अनुसार, मजिस्ट्रेट ऐसी महिला की संपत्ति के वारिसों को आदेश दे सकता है कि वे उस महिला को उचित और न्यायसंगत निर्वाह भत्ता दें। ऐसा आदेश देते समय मजिस्ट्रेट महिला की आवश्यकताओं, उसके विवाहित जीवन के स्तर और वारिसों की आय को ध्यान में रखेगा। यह निर्वाह भत्ता वारिसों द्वारा उसी अनुपात में दिया जाएगा जिस अनुपात में वे उस महिला की संपत्ति के उत्तराधिकार बनेंग। वे लोग उसे उस अवधि तक निर्वाह भत्ता देते रहेंगे, जितनी अवधि का जिक्र मजिस्ट्रेट ने अपने आदेश में किया होगा।
अगर उस महिला के बच्चे हैं तो मजिस्ट्रेट केवल बच्चों को ही निर्वाह भत्ता देने के लिए कहेगा, लेकिन बच्चों को भत्ता न दे सकने की स्थिति में वह तलाकशुदा महिला के माता-पिता आदेश देगा कि वह उसे निर्वाह भत्ता दें।
यदि महिला के रिश्तेदार न हों या वे महिला का भरण पोषण करने में असमर्थ हों तो मजिस्ट्रेट वक्फ अधिनियम, 1995 की धारा 13 के तहत उचित निर्वाह भत्ता देने का आदेश उस महिला से संबंधित राज्य के वक्फ बोर्ड को देगा।
पारसी विवाह और तलाक अधिनियम, 1936 में पत्नी को मुकदमे के दौरान गुजारा भत्ता एवं स्थायी गुजारा भत्ता देने का प्रावधान है। जिस अवधि के दौरान विवाह से संबंधित मुकदमा न्यायालय में चलता है उसके लिए न्यायालय पत्नी को अधिकतम रकम जोकि पति की शुद्ध आय का पांचवा भाग तक होती है, दिला सकता है। न्यायालय स्थायी भरण पोषण की राशि तय करने के दौरान पति की उचित भुगतान क्षमता, पत्नी की अपनी संपत्ति और दोनों पक्षों के आचरण को ध्यान में रखेगा। यह आदेश तब तक लागू रहेगा, जब तक पत्नी पतिव्रता रहती है और दूसरी शादी नहीं करती।
ईसाई महिलाओं के भरण पोषण के अधिकारों के बारे में भारतीय तलाक अधिनियम,1869 में प्रावधान किए गए हैं। इस कानून मे वैसे ही प्रावधान हैं जैसे पारसी कानून के अंतर्गत हैं। भरण पोषण, मुकदमे के दौरान निर्वाह व्यय एवं स्थायी निर्वाह व्यय- दोनों को स्वीकृत करते समय भी पारसी कानून की सारी बातों को ध्यान में रखा जाता है।
5.उत्तराधिकार
वर्ष 1925 में भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम बनाया गया था। इस अधिनियम का उद्देश्य उन सभी कानूनों को समन्वित करना था, जो उस समय अस्तित्व में थे। मुसलमानों और हिंदुओं के उत्तराधिकार के विषय में लागू होने वाले कानूनों को इस अधिनियम से अलग रखा गया था। उत्तराधिकार संबंधी कानूनों को समन्वित करते समय दो स्पष्ट योजनाओं को अपनाया गया। पहला भारतीय ईसाइयों, यहूदियों और विशेष विवाह अधिनियम, 1954 के अधीन विवाहित व्यक्तियों के संपत्ति- उत्तराधिकार के बारे में और दूसरा पारसियों के उत्तराधिकार संबंधी अधिकारों के बारे में।
पहली योजना में, अर्थात उन लोगों के संदर्भ में जो पारसी नहीं हैं, प्रावधान था कि अगर किसी व्यक्ति की मृत्यु वसीयत लिखने से पहले हो जाती है और उसकी विधवा एवं उसके खानदान के लोग जीवित हैं तो विधवा पति की एक तिहाई संपत्ति के निश्चित भाग की अधिकारिणी होगी और बाकी उत्तराधिकारी बचे हुए दो तिहाई भाग के अधिकारी होंगे। विधवा के अधिकारों को बेहतर बनाने के लिए इस कानून में संशोधन किया गया और उसमें बाद में प्रावधान किया गया कि जिस व्यक्ति की मृत्यु बिना वसीयत लिखे हो जाती है, उसकी विधवा जीवित हो, खानदान में कोई न हो और संपत्ति का शुद्ध मूल्य 5000 रूपए से अधिक न हो तो वह पूरी संपत्ति की अधिकारिणी होगी। यदि संपत्ति का मूल्य 5000 रूपये से अधिक होगा तो वह 5000 रूपए पर चार प्रतिशत ब्याज की अधिकारिणी होगी और शेष संपत्ति में वह अपने भाग की अधिकारिणी होगी। यह अधिनियम किसी व्यक्ति पर अपनी संपत्ति की वसीयत करने के मामले में कोई प्रतिबंध नहीं लगाता।
उस कानून की दूसरी योजना में पारसी बेवसीयती उत्तराधिकार के लिए प्रावधानप है। भारतीय उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 1991 (1991 का 51 वां) द्वारा उक्त अधिनियम को इस प्रकार संशोधित किया गया है कि पुत्रों और पुत्रियों- दोनों को अपने पिता अथवा माता की संपत्ति का समान हिस्सा मिले। इसमें यह भी प्रावधान है कि पारसी अपनी संपत्ति धार्मिक या दान संबंधी कार्यों के लिए दे सकते हैं। इस पर कोई रोक नहीं है। इस कानून के अनुसार, जब कोई पारसी वसीयत किए बिना अपने पीछे विधवा/विधुर और बच्चे छोड़कर मर जाता/जाती है तो संपत्ति इस प्रकार वितरित की जाएगी कि विधवा/विधुर और हर बच्चे को समान हिस्सा मिले। इसके अतिरिक्त अगर किसी पारसी की मृत्यु अपने बच्चों और विधवा/विधुर के अतिरिक्त अपने पीछे माता या पिता या माता-पिता, दोनों को छोड़ जाने की स्थिति में हो जाती है तो माता या पिता या दोनों बच्चे के हिस्से का आधा भाग मिलेगा।
इस कानून में भारतीय उत्तराधिकार (संशोधन) कानून 2002 द्वारा संशोधन किया गया है। ऐसा महसूस किया जा रहा है कि इस कानून की धारा 32 में विधवाओं के प्रति भेदभाव किया जाता है। इस भेदभाव को दूर करने के लिए धारा 32 में वर्णित उपबंध हटा दिया गया है। इस संशोधित कानून द्वारा धारा 213 में भी संशोधन कर ईसाइयों को दूसरे धर्मावलंबियों के समान कर दिया गया है।
बेवसीयत हिंदू संपत्ति के बारे में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 (1956 का 30वां) को संहिताबद्ध किया गया है। यह जम्मू और कश्मीर को छोडकर पूरे देश में लागू है। इस कानून की यह विशेषता है कि अगर किसी व्यक्ति की बिना वसीयत लिखे मृत्यु हो जाती है तो इसमें महिलाओं को भी पुरूषों के समान उसकी संपत्ति के उत्तराधिकार का अधिकार दिया गया है।
भारत में अधिसंख्य मुसलमान सुन्नी कानून के हनफी सिद्धांत को मानते हैं। अदालतें भी यह मानती हैं कि अगर इसके विपरीत कुछ नहीं कहा गया तो हनफी कानून ही लागू होगा। हालांकि शिया और सुन्नी कानून के सिद्धांतों में बहुत समानता है लेकिन कुछ मतभेद भी हैं। सुन्नी कानून कुरान के उत्तराधिकार की आयतों को इस्लाम के पहले के रीति-रिवाजों के अनुरूप मानता है और पुरूषों को प्रमुखता देता है। हिंदू और ईसाई कानून के विपरीत मुसलिम कानून वसीयत लिखने पर प्रतिबंध लगाता है। कोई मुसलमान अपनी संपत्ति का एक तिहाई भाग वसीयत में दे सकता है। वह अपने उत्तराधिकारियों की सहमति के बिना वसीयत लिखकर किसी अनजान व्यक्ति को भी अपनी संपत्ति का एक तिहाई भाग दे सकता है। लेकिन अपने एक उत्तराधिकारी को अन्य उत्तराधिकारियों की सहमति के बिना वह कुछ देगा, वह कानूनी रूप से मान्य नहीं होगा। वसीयत पर उत्तराधिकारियों की सहमति होने पर भी वसीयत लिखने वाले की मृत्यु होने के बाद मुकरा जा सकता है। शिया कानून के अनुसार, संपत्ति का एक तिहाई भाग वसीयत द्वारा किसी को भी दिया जा सकता है |
अधिवक्ता रवि कश्यप ( Advocate Ravi Kashyap )
Call: +918090365041
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